गुरु: कृपालुर्मम शरणम्। वंदेsहं सद्गुरु चरणम्॥
भाव! किसे कहते हैं भाव? कब उठता है भाव मन में? कैसे इसे पहचाने?
क्या है भाव का उपयोग?
मन द्वारा किसी भी इंद्रिय ग्राह्य पदार्थ में, राग अथवा द्वेष संबंधी कोई
भी, अनुकूल या प्रतिकूल “रस विचार” के साथ “तन्मय” होने जाने को
प्रवृत्ति को “भाव” कहते हैं।
भाव की अवस्था में ही तत् विषय संबंधी रस पान के आनंद का बोध होता है।
इस अवस्था में रस का मेघ ज्ञान के सूर्य को आच्छादित कर लेता है और
विषय के साथ प्रत्यक्ष संयोग असंभव हो जाता है।
भाव की इस पराकाष्ठा की अवस्था को भाव समाधि कहते हैं।
यह भाव समाधि यदि अनुकूल भाव से हो तो प्रेम समाधि कहलाती है।
किन्तु यह प्रेम समाधि तभी संभव है जब विषय दिव्य हो यथा श्री राधा-
कृष्ण अथवा सद्गुरु।
इस मनोस्थिति हेतु निम्न पद सहायक होगा, इस पद में श्री कृष्ण की
परम रसमय लीला का वर्णण है:
देखु सखि! झूमत आवत श्याम।
गति मदमत्त गयंद लजावत, मनभावत ब्रजबाम।
झुकि झुकि झोंके खात चंद्रिका, झुकी ग्रीव दिशि बाम।
मुख आवत पुनि पुनि लट कारी, घुंघरारी अभिराम।
मुरली मधुर बजाय बुलावत, लै लै सखियन नाम।
लखि ‘कृपालु’ अनुपम छवि लाजत, कोटि कोटि शत काम॥
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