Wednesday, 9 July 2014

गुरु: कृपालुर्ममशरणम् वन्देहंसद्गुरु चरणम्


                                                               


                            श्री कृष्ण प्रतिज्ञा

भीष्म प्रतिज्ञा तो इतिहास प्रसिद्ध है ही। आज भी संसार में किसी प्रतिज्ञा की दृढ़ता प्रदर्शित करने के लिए इसका ही उदाहरण दिया जाता है। किन्तु यह प्रतिज्ञा हस्तिनापुर के सम्राट की रक्षा की प्रतिज्ञा सत्य करने हेतु अथवा “सत्य-व्रत” के पालन हेतु थी। 
गीता में भी श्री कृष्ण ने सात वचन दिये हैं, प्रतिज्ञाएँ की हैं। यह वचन केवल अर्जुन के लिए ही नहीं वरन समस्त भक्तों के लिए हैं। आइये हम श्री कृष्ण की प्रतिज्ञाओं पर दृष्टि डालें।
श्री कृष्ण प्रतिज्ञा करते हैं:
ये यथा मां प्रपद्यन्ते तान्स्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश:॥ (गीता 4/11)
यह प्रतिज्ञा बहुत महत्वपूर्ण है। प्राय: नव साधकों को शंका होती है कि हम तो तो भगवान से प्रेम कर रहे हैं, अष्टयामी सेवा रूपी भक्ति करते जा रहे हैं, किन्तु स्वयं श्री किशोरी जी एवं राधा वल्लभ हमारी ओर निहार भी रहे हैं?
यह शंका इस प्रतिज्ञा से निर्मूल सिद्ध होती है। श्री कृष्ण स्पष्ट कह रहे हैं कि जो भी भक्त, जिस प्रकार से मेरी शरनगति करता है मैं ठीक उसी प्रकार से उसे स्मरण करता हूँ। यदि आप श्री कृष्ण की माता की सखी के रूप में मैया के साथ लाला की सेवा में, हलराने, दुलराने अथवा खिलाने-पिलाने में सहयोग का ध्यान कर रहे हैं तो यह प्रतिज्ञा प्रमाण है कि उस समय बाल-कृष्ण उस प्रेम के वश में हैं।
अतः साधक निश्चिंत होकर अपनी सेवा में रत रहे व उत्तरोत्तर सेवा व प्रेम बढ़ाता जाय। गीता में श्री कृष्ण के वचन को ध्यान मंर रख व्यर्थ के संशय को बिना झिझके त्याग दे। इस से भक्ति में और वृद्धि होगी।
साधक को शंका हो सकती है कि संसार में तो बड़े-बड़े साधन रखने वाले भक्त हैं जो क्षण भर में अनेकानेक पदार्थ, छप्पन व्यंजन, धन-धान्य समर्पित करने को तत्पर हैं। ऐसे में मुझ अकिंचन के रूखे-सूखे का अर्पण प्रभु स्वीकार करेंगे अथवा नहीं! यह कदापि भी चिंता का विषय नहीं है। गीता (9/26) में भगवत् वचन स्पष्ट है;
पत्रम पुष्पम फलम तोयम यो मे भक्त्या प्रयच्छाति।
तदहम भकत्युपहृतमश्नामि प्रायतात्मन:॥ (गीता 9/26)
अर्थात पत्ता हो, फूल हो, फल हो या जल; भक्त जो भी सर्वश्रेष्ठ बन पड़े, उससे बेहिचक भगवान का भोग लगाए। भगवान उस निष्कपट अकिंचन के प्रेम पूर्वक अर्पित किए भोग को खाएँगे ही। भक्त इस में कदापि संशय नहीं होना चाहिए।
श्री कृष्ण की प्रतिज्ञा है कि मैं अत्यंत सुलभ हूँ।
गीता 8/14 के अनुसार:
अनन्यचेता: सततम यो मां स्मरति नित्यश:।
तस्याहम सुलभ: पार्थ: नित्ययुक्तस्य योगिन:॥ (गीता 8/14)
अनन्याश्चिंतयनतो मां ये जना: पर्युपासते।
तेषां नित्यभियुकतानां योगक्षेमम वहाम्याहम्॥ (गीता 9/22)
श्री कृष्ण के दर्शन, उनसे व्यवहार करने, उनकी प्रत्यक्ष सेवा प्राप्त करने का सरल साधन है – अनन्य भाव से उनका निरंतर प्रेम पूर्वक स्मरण। केवल संसार में उनका ही भरोसा हो, किसी और का भरोसा न हो कि, मेरी जीवन नैया इस भवसागर से कोई और भी पार लगाने में सक्षम अथवा सहायक बन सकता है। ऐसे लोगों पर तो इतनी कृपा है कि उन्हें जो प्राप्त होना वांछनीय है उसे दिलाते हैं, और जो कृपा कर के उन्होने दिया है उसकी रक्षा भी स्वयं करते हैं।
मधुसूदन सरस्वती एक समय गीता पर भास्य लिख रहे थे। योगक्षेमम वहाम्याहम् पर आकर रुक गए। उन दिनो छपी पुस्तकें नहीं होती थीं। किसी भी शास्त्र की प्रति प्राप्त करना कठिन था।विचार करने लगे कि श्री कृष्ण तो ब्रह्मांड नायक हैं। उनके पास अनेकानेक दिव्य शक्तियों से युक्त सेवक हैं। फिर वह क्यों स्वयं आएंगे। अवश्य ही श्लोक ग़लत होगा। यह सोचकर लिख दिया योगक्षेमम दहाम्याहम्, व के स्थान पर द लगा दिया और गंगा स्नान हेतु चले गए। घर में आटा-दाल भी नहीं था। आज उपवास होना ही था। 





उनके जाने के पश्चात घर में एक बालक आया। सुंदर-सलोना, मुख पर चोट का चिन्ह, सर पर भरी गठरी। सरस्वती महाशय की पत्नी ने पूछा कौन हो तुम? बालक ने कहा गुरु जी ने भोजन सामग्री भिजवाई है।
पत्नी ने पूछा मुख पर चोट कैसे लगी? बालक बोला गुरु जी ने मारा है, और चला गया।
पत्नी क्रुद्ध बैठी थी। मधुसूदन सरस्वती के आते ही उनपर बरस पड़ी – एक तो बच्चे से बोझा उठवाते हो और फिर उसको मारते भी हो।
पहले तो वह कुछ समझ नहीं पाये। जब विचार किया तब समझ में आया की वह तो स्वयं प्रभु श्री कृष्ण थे, अपने सर पर योगक्षेमम वहन करते हुए।
विश्वास होना चाहिए कि वह योगक्षेमम वहन करते हैं, करेंगे। भौतिक संस्कार में और आध्यात्मिक संसार में भी हमें जो भी मिला, जिसके जरिये से भी मिला जिस भी परिश्रम से मिला, सब उनका नाटक था। देने वाले वही हैं और उन्होने ही कृपा करके ही सारे माध्यम बनाए हैं क्योंकि वह परम कौतुकी हैं और छलिया भी। “खूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं, साफ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं।”
एक प्रतिज्ञा समस्त अलौकिक जगत की विभूतियों के बारे में है जो प्रत्यक्ष नहीं दीखतीं। जैसे देवता, पितर आदि।
यांति देवव्रता देवापिन्त्रन्यानति पितृव्रता:।
भूतानि यांति भूतेज्या यांति मद्याजिनोsपि माम्॥ (गीता 9/25)
साधना निष्फल नहीं जाती। जो जिसकी भक्ति करता है वह उसे प्राप्त कर ही लेता है। तुलसीदास के अनुसार “जेहिकर जापर सत्य सनेहू, सो तेहि मिलहि न कछु संदेहू॥” किन्तु किसी अन्य की भक्ति करने से माया निवृत्ति नहीं होती, आत्यंतिक दुख निवृत्ति नहीं होती। जन्म मरण का चक्कर नहीं छूटता। किन्तु कृष्ण कृपाप्राप्त का पुनर्जन्म नहीं होता। इसमे संदेह नहीं।
गीता 9/30 तथा 9/31 की प्रतिज्ञा हम लोगों के लिए जो कलिमल ग्रसित अधम, तमोगुणी, देहाभिमानी, अल्पज्ञ लोग जो जाने-अंजाने रोज़ पाप ही करते रहते हैं, बहुत महत्वपूर्ण है।
अपि चेत्सुदुराचारो भजते मम ननयाभक्।
साधुरेव स मन्तव्य: समयग्व्यवसितो हि स:॥ (गीता 9/30)
क्षिप्रम भवति धरमात्मा शश्वच्छांतिम निगच्छति।
कौंतेय प्रतिजानीहि न मे भक्त: प्राणश्यति॥ (गीता 9/31)
अनंतानंत जन्मो में हमने अनंतानांत पाप किए हैं। अतः कौन सा पाप है जो प्रत्येक मायाबद्ध जीव नहीं कर चुका है। इस प्रतिज्ञा में श्री कृष्ण सभी जीवों को आशा बंधाई है ताकि भक्ति मार्ग पर चलने का “आशाबन्ध” सबके लिए ही हो। कोई भी यदि दीन ह्रदय से सदा के लिए प्रपन्न हो जाय, भगवान उसे भक्त मान लेते हैं। फिर भगवान का वचन है कि मेरे भक्त का पाटन हो ही नहीं सकता।
राम चरित मानस में श्री राम कहते हैं:
“ जो नर होई चराचर द्रोही l आवै सभय सरन तक मोही ll तजि मद मोह कपट छल नाना l करऊँ सद्य तेहि साधु समाना ll”
शर्त यह है कि निश्चय दृढ़ हो, अर्थात उनमें छल, कपट आदि न हो एवं अनन्यता हो जो प्रत्येक प्रतिज्ञा की अनिवार्यता है।
इस विषय में अध्याय 6, श्लोक 38 में अर्जुन का प्रश्न अत्यधिक महत्वपूर्ण है।
कचिन्नोभयवविभ्रष्टश्छिननाभ्रमिव नश्यति।
अप्रतिष्ठो महाबाहो विमूढो ब्रह्मण: पथि॥ (गीता 6/38)
अर्थात यदि भक्तियोग मार्ग पर चलता हुआ साधक जिसे संसार से वैराग्य भी हो गया हो किन्तु क्षणिक मोह के वश में होकर उसका पतन हो जाय और संभलने का अवसर प्राप्त होने से पूर्व, उसी मोह की अवस्था में उसकी मृत्यु हो जाय तो क्या वह दोनों ओर का नहीं रहता, जैसी की कहावत है “दुविधा में दोऊ गए, माया मिली न राम।“
श्री कृष्ण कहते हैं नहीं। उनकी प्रतिज्ञा है कि ऐसा कदापि नहीं होगा। उनका वचन है-
पार्थ नैवेह नामुत्र विनाश्स्तस्य विद्यते।
न हि कल्याणकृत् कश्चित्दुर्गति तात गच्छति॥ (गीता 6/40)
श्री कृष्ण कहते हैं कि ऐसे योगभ्रष्ट साधक की, जो कल्याण के मार्ग पर श्रद्धा व निष्ठा से चलता रहा हो, , सद्गति ही होती है, दुर्गति हो ही नहीं सकती।
भगवान पुनः कहते हैं –
प्राप्य पुण्यकृताम लोका नुषित्वा शाश्वती: समा:।
शुचीनाम श्रीमतां गेहे योगभ्रष्टोsभिजायते॥(गीता 6/41)
उस योगभ्रष्ट साधक ने साधना के मध्य अनायास हो जो पुण्य अर्जित किए हैं, जैसे, जीवों पर दया, दान, तीर्थ स्नान आदि, उनके परिणाम स्वरूप उसे यथायोग्य उत्तम लोक प्राप्त होंगे, और भी बहुत कुछ जिसका वर्णन आगे किया जायगा।
गीता 6/21 में एक नियम है-
ते तं भुक्त्वा स्वर्गलोकं विशालंक्षीणे पुण्य मर्त्यलोकं विशन्ति।
एवं त्रयीधर्ममनुप्रपन्ना गतागतं कामकामा लभन्ते ॥ (गीता 6/21)”
वे पुण्यात्मा उस विशाल स्वर्गलोक को भोगकर पुण्य क्षीण होने पर मृत्यु लोक को प्राप्त होते हैं। इस प्रकार स्वर्ग के साधनरूप तीनों वेदों में कहे हुए सकामकर्म का आश्रय लेने वाले और भोगों की कामना वाले पुरुष बार-बार आवागमन को प्राप्त होते हैं, अर्थात्‌ पुण्य के प्रभाव से स्वर्ग में जाते हैं और पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक में आते हैं।
किन्तु इस नियम में मानव देह मिलने की अनिवार्यता नहीं है। लेकिन भक्तिमार्ग पर चलने वाले साधक के लिए गीता 6/40 के अनुसार न केवल मानव देह निश्चित है बल्कि गीता 6/40 का नियम है कि पुण्य द्वारा प्राप्त स्वर्ग आदिक का उपभोग करने के बाद साधक को मानव देह भी मिलती है और साथ ही धन-धान्य एवं भक्ति सम्पन्न उस परिवार में जन्म मिलेगा जिसमें राधे नाम का संकीर्तन होता हो व संतों का संग भी होता हो।
आगे गीता 6/42 में पुनः माधव कहते हैं;
अथवा योगिनामेव कुले भवति धीमताम्। एतद्धि दुर्लभतरम लोके जन्म यदीदृशम्॥ (गीता 6/42)
साधक की पूर्व स्थिति के अनुसार, उदाहरणार्थ यदि उसने सारे सद्कर्म हरि या श्रोत्रिय ब्रहमनिष्ठ गुरु या संत को अर्पित किए हों तो उसके साथ यह भी हो सकता है कि वह स्वर्गादिक लोक को जाये ही नहीं, सीधे ही उसे मानव देह मिले और जन्म मिले तत्वदर्शी महापुरुष के घर में। किन्तु स्वयं श्री कृष्ण कहते हैं कि ऐसा अत्यंत दुर्लभ है।
दोनों ही अवस्था में उसे पूर्व मानव देह के अर्जित संस्कार प्राप्त हो जाते हैं, क्योंकि भक्ति को नारद भक्ति सूत्र में अमृतस्वरूपा कहा गया है, जिसका नाश कभी न हो। जो प्रत्येक शरीर के साथ साथ मन बुद्धि को प्राप्त होती रहे।
तत्र तॅँ बुद्धिसनयोगम लाभते पौर्व देहिकम्।
यतते च ततो भूयः संसिद्धौ कुरुनंदन॥ (गीता 6/43)
ऐसा अवसर प्राप्त होने पर वह पूर्व जन्म का योगभ्रष्ट साधक भगवत् प्राप्ति हेतु पहले से अधिक प्रयास करता है। अतः यह स्पष्ट है की भक्ति का फल भक्ति के रूप में तब तक प्राप्त होता रहता है जब तक सद्गुरु प्रेम दान कर भगवत्प्राप्ति न करा दे। यह कितना अद्भुत प्राण है, भगवान के इस गुण पर कौन बलिहार नहीं जाएगा कि वह अपने भक्त पर एक बार कृपा कर भक्ति हेतु वातावरण बना देते हैं तो अपनी प्राप्ति करा कर ही डैम लेते हैं। इस बीच न जाने कितने बनाव बनाते हैं, संत के, सद्गुरु के रूप में अवतार लेकर आते हैं। भक्ति छिन न जाए इसके सद्गुरु व भगवान लिए भागीरथ प्रयत्न करते ही रहते हैं।
भक्ति संबंधी तत्व ज्ञान अति दुर्लभ है। तुलसीदास जी के अनुसार “बिनु सत्संग न पावहि प्राणी।”, “मिलहि जो संत होहि अनुकूला।”, “पुण्य पुंज बिनु मिलहि न संता।” और उसपर भगवत्प्राप्ति के मार्ग अनेक हैं, उनकी साधना कठिन है। कर्म, ज्ञान, योग आदि बड़े कड़े नियमो वाले साधन हैं। और कर भी ले तो पतन होने की संभावना बनी ही रहती है, “परत खगेस न लागति बारा।” किन्तु ऐसे दुर्लभ भगवान व उनकी साधना सुलभ भी है।
अंतत: श्री कृष्ण कहते हैं:
सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणम व्रज।
अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच:॥ (गीता 18/66)
धर्म दो प्रकार के होते हैं। एक त्रिगुणात्मक धर्म जो सांसारिक धर्म होता है, जिसका पालन भीष्म, कर्ण, द्रोणाचार्य आदि ने किया और दूसरा जो भगवदीय धर्म पर आधारित हो धर्म के संस्थापन हेतु हो, जिसका सूक्ष्म वर्णन गीता में भगवान ने स्वयं किया है, जो एक अलग चर्चा का विषय है। श्री कृष्ण का वचन है कि मेरे निमित्त कार्य के शुद्ध परिणामी मार्ग के मध्य यदि पाप भी हो जाय तो मैं स्वयं तुम्हें उससे मुक्त कर दूंगा।तू शोक न कर तथा अध्याय एक में उच्चरित अपनी शंकाओं से भ्रमित न हो।
एक प्रतिज्ञा और। भगवान श्री कृष्ण गीता अध्याय 18 श्लोक 68 में बतलाते हैं कि तेरा-मेरा यह संवाद अत्यंत गोपनीय है तथा इसके अधिकारी केवल मेरे भक्त ही हैं, अश्रद्ध नहीं। और जो भी मेरा भक्त मेरे इस गीतोपदेश को, मेरे भक्तों के मध्य कहेगा, नि:संदेह वह मुझे ही प्राप्त होगा।
ये इमं परमं गुहयम मद्भ्क्तेष्वभिधास्यति ।
भक्तिम मइ परां कृत्वा मामे वैष्यत्यसंशय:॥ (गीता 18/68)
साधारण सांसारिक सत्ता अथवा शक्तिप्राप्त व्यक्ति भी यदि हमसे हमारे हित हेतु कोई वचन देता है अथवा प्रतिज्ञा कर लेता है तो हम फूले नहीं समाते। फिर यह तो ब्रह्मांडनायक के वचन हैं, अब हमें उनकी कृपा के प्रति संदेह कैसा?

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