Wednesday, 9 July 2014

श्री गुरवे नम:


गुरु पूर्णिमा वंदन: सद्गुरु का वाक्य ही प्रमाण है:
यदि हमसे कोई युवक आकर कहे वेद शास्त्र कहे “संबंध अभिधेय प्रयोजन। कृष्ण, कृष्ण भक्ति, प्रेम,तिन महाधन।।“
संभवत: हम प्रमाण मांगेंगे। यदि हमे बतलाया जाय कि इनका वाक्य ही प्रमाण है तो हम कहेंगे कि ऐसा कहीं होता है? यदि हमे पुन: बतलाया जाय कि इन्होंने कश्मीर के दिग्विजयी पंडित श्री केशव मिश्र तथा प्रकांड विद्वान श्री प्रकाशनन्द सरस्वती को शास्त्रार्थ में पराजित किया है तो? दंभी होने पर हम कहेंगे हम किसी को नहीं मानते अथवा हमारे सामने तो ऐसा नहीं हुआ। केवल कुछ लोग जो गुण शास्त्रार्थ का अर्थ जानते है व लाभेच्छु कहेंगे भई! उनसे मिला दो अथवा उनके व्याख्यान की कोई पुस्तक ही ला दो। निम्न वर्णन से यह कुछ-कुछ ज्ञात होगा कि कितना विषद ज्ञान होता है एक एक वाक्य के पीछे, यदि गुरु श्रोत्रिय व ब्रहमनिष्ठ है तो।
श्री जगद्गुरू* (*Supreme master of his era on spiritual philosophies of the world) श्री कृपालुजी महाराज के प्रवचनों से इस दास को शास्त्रार्थ का अर्थ परिचय में आया। यह विधियाँ material life में भी इतनी ही महत्वपूर्ण है; किन्तु अब इन का ज्ञान लुप्तप्राय है। वृहदारण्यकोप्निषत् वैदिक शास्त्रार्थ पद्धति का परिचायक है। कर्म, ज्ञान अथवा भक्ति संबंधी किसी भी प्रवचन में प्रमाणीकरण के सर्व शास्त्रीय सिद्धांतों का कैसे प्रयोग किया जाय श्री महाराजजी ने यह सदैव अपने प्रवचनों में दर्शाया है। श्री महाराजजी प्रत्येक विषय का प्रतिपादन उस विषय को सर्व शास्त्रों के सिद्धांतों, शिक्षा, कल्प, व्याकरण आदि की कसौटी पर कसते हुए करते हैं। न्याय शास्त्र के सिद्धांतों की कुछ झांकी, गुरु पूर्णिमा पर्व से पूर्व, प्रस्तुत है:
अपनी प्रवचन श्रंखला “धन्य सोई! जो स्वारथ पहिचान” में परमपूज्य श्री चैतन्य महाप्रभु के निम्न महावाक्य की व्याख्या के मध्य “भक्ति मार्ग ही सर्वोपरि एवं एकमात्र साधन सिद्ध करने में” में इसका उदाहरण देखें:
वेद शास्त्र कहे संबंध अभिधेय प्रयोजन।
कृष्ण, कृष्ण भक्ति, प्रेम,तिन महाधन।।
“......अब अभिधेय आया। अभिधेय का मतलब साधन उपाय। जिसके दवारा लक्ष्य प्राप्त हो अभिधेय कहते हैं ।
अभिधीयते अनेन इति अभिधेयम्‍ ।
अभिधेय निर्णय पॉंच सिद्धांतों के आधार पर किया जाता है; 1 अन्वय विधि से- उससे लक्ष्य की प्राप्ति होगी 2. व्यसतिरेक - उसके बिना लक्ष्य प्राप्ति नहीं होगी 3. अन्य निरपेक्षता – उस मार्ग को किसी की अन्य साधन की अपेक्षा न हो, ऐसा मार्ग हो 4. सार्वत्रकिता – जो सब के लिए हो; तथा 5. सदातनत्व – हर काल के लिए हो। ये पॉंच शर्तें जिसमें हों, वह मार्ग सही मार्ग कहलाता है।.......”
भविष्य में तात्पर्य निर्णय के संबंध में निम्न पर उन्हींके प्रवचनों के माध्यम से प्रकाश डाला जाएगा तथा प्रमा, प्रमेय, प्रमाण बतलाते हुए भ्रांति (प्रमाण के समान प्रतीत होने वाला, किन्तु भ्रमित करने वाला तर्क) से उनका अंतर भी स्पष्ट किया जायेगा:
उपक्रमोपसंहारौ अभ्यासोपूर्वता फलम्।
अर्थवादोपपत्ति च लिंगम तात्पर्यनिर्णये॥
Western inductive और deductive logic के सिद्धान्त भी श्री महाराजजी ने प्रचुरता से प्रवचनों में विषय को सिद्ध करने में प्रयोग किए हैं। अत: सद्गुरु के वाक्य को प्रमाण मानने की श्रद्धा हममे होगी तभी लाभ होगा।
परम पूज्य श्री कृपालुजी महाराज, चैतन्य महाप्रभु, नित्यानन्द प्रभु, गोस्वामीपाद रूप, सनातन, जीव, याज्ञवल्क्य जी महाराज, आदि ऐसे सभी संतों के श्री चरणों में तथा श्री वृन्दावन धाम व ब्रजवासिओ को मेरा नमन।

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